परिदृश्य पर नजर दौड़ाएं तो शुरू से ही मनरेगा सरकारी सुस्ती से बाहर नहीं निकल पाई है। हालांकि, शुरुआती दौर में गांव के व्यक्ति को सौ दिन का रोजगार देने वाली इस योजना ने अच्छे संकेत दिए, लेकिन सही रीति-नीति के अभाव में यह परवान नहीं चढ़ पा रही। असल में योजना में लाभार्थियों को लाभ पहंुचाने के मद्देनजर जटिलताएं भी कम नहीं हैं।
जॉब कार्ड बनाने की जटिलता, कम दिहाड़ी, कई बार समय से मजदूरी का भुगतान न होने जैसे कारणों से भी इसमें अरुचि बढ़ रही है। फिर सरकारी महकमों ने भी ऐसी कोई रणनीति अब तक नहीं दिखाई है, जिससे वह मनरेगा से संबंधित ग्रामीणों की शिकायतों को दूर कर उन्हें कार्य करने को प्रेरित कर सके।
शासन-प्रशासन इसके लिए स्टाफ की कमी का रोना रोता है, लेकिन इसके लिए व्यवस्था तो सरकार को ही करनी है। यही नहीं, कई जगह मनरेगा में भी भ्रष्टाचार की शिकायतें आती रही हैं। कभी फर्जी जॉबकार्ड तो कभी फर्जी मस्टररोल भरने जैसी शिकायतें इनमें मुख्य हैं। इन सब कारणों के चलते मनरेगा जैसी महत्वपूर्ण और गांव के आखिरी व्यक्ति तक कुछ राहत पहंुचाने वाली इस योजना को पलीता लग रहा है। टिहरी जैसे जिले की 408 ग्राम पंचायतों में जॉबकार्ड न बनना तो यही प्रदर्शित कर रहा है।
हालांकि, अक्सर यह दावा किया जाता है कि मनरेगा के क्रियान्वयन पर गंभीरता से ध्यान दिया जा रहा है, फिर भी स्थिति नाजुक है। साफ है कि इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार सरकारी तंत्र ही है।
Source : courtsy jagran.com